चिकित्सकीय अनुसंधान आलेख

अनुभूत प्रयोग एवं उनका संग्रह

चिकित्सकीय अनुसंधान आलेख

होमियोपैथी

होमियोपैथी एक अत्याधुनिक पैथी है!
यह एक निर्मम सच्चाई है कि होमियोपैथी का मुल्यांकन और उसकी प्रस्तुति कभी भी निर्पेक्ष ढंग से नहीं की गई। इसके वैज्ञानिक लाॅजिक को दरकिनार कर मनोगत धाराणा थोपने के लिए मैथेमेटिकल लाजिक को पेश किया जाता रहा ताकि इसकी वैज्ञानिकता पर धूँध पड़ी रहे और चिकित्सा का गोरखधंधा फलता फूलता रहे। सबसे पहले गणीतीय गणना देखते हैं।इस पैथी का उद्भव- काल लगभग 1779 से 1842 ईं है। जबकि 15 वीं शताब्दी के बाद ही आधुनिक युग शुरू हो जाता है। इस दृष्टि से तो यह निर्विवाद रूप से आधुनिक पैथी हूई। अब चलते हैं वैज्ञानिक और खासकर चिकित्सकीय दृष्टि से पड़ताल करने। हमारा शरीर अत्यंत सूक्ष्म इकाइयों से बना है जिसे कोशिका कहते हैं और इन्हें हम अपनी नंगी आंखों से नहीं देख सकते।इन्हीं का बनना और बिगड़ना बिमारी है।पूरानी चिकित्सा पद्धति यही से अपनी दिशा खो देती है जबकि आधुनिक पैथी यानि होमियोपैथी इससे एक कदम आगे बढ़कर इस निष्कर्ष पर पहूँचती है कि हमारे शरीर का संचालन एक ऊर्जा द्वारा होता है जिसे हम जीवनी ( vital energy) शक्ति के नाम से जानते हैं जो अदृश्य(‌unvisual) होती है। यह स्वचलित होती है और हमारे पूरे शरीर का संचालन सूचारू रूप से करती है और इसकी प्रतिरक्षा भी करती है इसे ही विज्ञान की भाषा में जीवनी शक्ति (immun power) कहते हैं। इसके बगैर हमारा शरीर न तो कुछ महसूस कर सकता है न ग्रहण कर सकता है और नहीं कोई कार्य कर सकता है। बीमारी तभी संभव है जब हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली (immun system) कमजोर हो और पराजित होने लगे। मतलब साफ है कि हमारे शरीर की प्रतिरक्षा हेतु (‌self acting machenism, vital energy) प्रकृति प्रदत्त जीवनी शक्ति प्राप्त होती है और वह न सीर्फ अत्यंत सूक्ष्म होती है बल्कि ऊर्जा के रूप में रहती है। हनिमैनियन दृष्टिकोण यह कहता है कि इलाज मात्र उस जीवनी शक्ति को मदद पहूँचाना है और इसके लिए दो शर्तें आवश्यक हैं। पहला औषधि की मात्रा, भार एवं परिमाण में न सीर्फ अत्यंत सूक्ष्म हो बल्कि ऊर्जा के रूप में होतो और भी बेहत्तर और दूसरा यह कि शरीर के प्राकृतिक कार्य एवं संचालन के अनुरूप हो और उसके साथ यानि जीवनी शक्ति के साथ समन्वय(harmonious realatio) स्थापित कर उसे सक्रिय (reactivate)करने वाला हो न कि उसके बदले स्वयं कार्य करनेवाला हो। कहना न होगा कि एक मात्र होमियोपैथिक औषधियां हीं ऐसा करने में सक्षम हैं क्योंकि यह धारणा सर्व प्रथम हनिमैन साहब ने विकसित किया है और उसी के अनुरूप औषधियों के निर्माण करने की तकनिकि विकसित की है जीससे वह जीवनी शक्ति को मदद पहूंचा उसे लड़ने योग्य बनाती हैं, न कि उसके बदले स्वंय रोग से लड़ती हैं और वह ऐसा करने में इसलिए भी सक्षम हैं क्योंकि ये औषधियाँ तनुकरण विधि द्वारा ऊर्जा को प्राप्त की हूई रहती हैं और हमारे शरीर का संचालन भी एक ऊर्जा (vital energy) द्वारा होता है। अत: होमियोपैथिक औषधियां जीवनी शक्ति के साथ बड़ी सहजता से दोस्ताना(echo friendly) संबंध स्थापित कर लेती हैं और बिमार जीवनी शक्ति (vital energy) को फीर से तरोताजा कर बिमारी को बाहर खदेड़ने लायक बनाती हैं। गणितीय गणना, भार, द्रव्यमान, अकार एवं आकृति तक सीमित रहता है जबकि वैज्ञानिक गणना प्रभावों तक का संकल्प और संकल्पना करता है। आशा है कि आप सभी को यह समझने में अब कोई उलझन नहीं होनी चाहिए कि होमियोपैथी एक पूर्ण अत्याधुनिक पैथी है जीसका भरपूर उपयोग होना चाहिए, तभी और सीर्फ तभी हम आज के नई बीमारियों से छूट कारा पा सकते हैं।

Similia, similibus, curenture!

A new form of medical therapy
A new form of medical therapy in which activates the body's self- healing powers in a unique way. सिमिलिया,सिमिलिबस, क्यूरेन्चर, चिकित्सा विधा की वह नवीनतम एवं विस्मयकारी चिकित्सा पद्धति है जिसमें प्रकृति प्रदत स्वचलित जिवनि शक्ति को ही सक्रिय कर रोगी को पूर्ण स्वास्थ्य की ओर लौटाया जाता है।इस विधा के अन्वेषक सैम्युअल हनिमैन हैं और उनका मानना है कि शरीर का संचालन एवं प्रतिरक्षा एक अदृश्य जिवनी शक्ति द्वारा होता है जिसे vital energy के नाम से जाना जाता है।कोई भी बिमारी पैदा होने से पहले हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली प्रतिकार करती है यानि संघर्ष करती है। जब उसका प्रतिकार कमजोर पड़ने लगता है अथवा परास्त होने लगता है तब वह मदद की गुहार लगाती है जो लक्षण अथवा चिन्ह (Sign and symptoms)के रूप में लक्षित होते हैं। यानि लक्षण अंतहकरण में चल रहे प्रतिरक्षात्मक आक्रमण की अभिव्यक्ति है, बिमारी मदद की गुहार की एक भाषा है, और इलाज के लिए सबसे विश्वसनीय माध्यम।According to Hahnemannean views sign and symptoms are reaction of defenc machanism, are, languases of disease . सार्वभौम रूप से प्रत्येक व्यक्ति समान्य होते हूए भी कई मायनों में- जैसे कि सुग्राह्यता,अभिरूचि, सहनशीलता, सहिष्णुता समान नहीं होते । किसी को सर्दी सहन नहीं होती तो किसी को गर्मी सहन नहीं होती, किसी को बारिश पसंद है तो किसी को बारिश से डर लगता, कोई आकेला रहन चाहता है तो कोई अकेला रह ही नहीं सकता, वगैरह- वगैरह। मतलब यह कि भिन्न भिन्न व्यक्तियों की जीवनी शक्ति भिन्न भिन्न होती है इसलिए दवाएँ भी भिन्न ही होगी। जो दवा रोगी के विशिष्ट लक्षण से मेल खाएगी वह उसकी दवा होगी जबकि बिमारी समान ही होगी। है न, चिकित्सा की यह अद्भुत एवं अद्वितीय विधा जीसमें चिकित्सक खुद रोगी का आकलन एवं व्यकलन करता है। यही कारण है कि होमियोपैथी में एक ही नाम की बिमारी की औषधि भिन्न भिन्न होती है। बिमार के मानसिक अथवा आंगिक विष्टलक्षणों के समान लक्षण प्रस्तुत करनेवाली औषधि का इस्तेमाल कर रोगी को पूर्ण स्वास्थ्य की ओर लौटाना ही similia similibus Curentur therapy है।

DVT- Deep veins thrombosis

नसों में गहन रक्त संघनन
पहले तो हम जान लें कि डी वी टी(DVT) है क्या?. DVT- Deep veins thrombosis,नसों में गहन रक्त संघनन। इस बीमारी में दरअसल नसों के अंदर ही रक्त के थक्के जम जाते हैं।जिससे न सीर्फ रक्त का बहाव अवरूद्ध होता है बल्कि नसों के अंदर घाव और गैंग्रीन हो जाने के खतरे बने रहते हैं अथवा नस के फट कर रक्त के इधर- उधर जमने का संभावना बन रहता है जो अंततः जख्म एवं गैंग्रीन में तब्दील हो सकता है। 2022 में रविशंकर राय नामक पेशेंट मेरे डिस्पेंसरी में आए। वो कराह रहे थे और उनका पूरा शरीर सफेद- पीला दिखता था। ठीक से निरक्षण करने पर पता चला कि उनका बाँया पैर पीछे की ओर पूरा काला पड़ चूका था और उसमें जलन युक्त असह्य दर्द हो रहा था और जाड़े के साथ बुखार भी था। उन्हें एक दवा देकर रक्त परीक्षण के लिए भेज दिया। जब रक्त का जाँच आया तो हिमोग्लोबिन की मात्रा औसत से काफी कम(3.6) थी।मैंने पटना जाकर जल्दी से ब्लड चड़वाने एवं उच्चस्तरीय चिकित्सा का परामर्श दिया। पेशेंट को लेकर लोग पटना गए, एक युनिट खून तो डाक्टरों ने चढ़ाया लेकिन पैर में गैंग्रीन बताकर पैर काटने की बात कहने लगे । पेशेंट ने अपने रिश्तेदारों को बताया कि डाक्टर साहब(मेरी)की एक ही दवा से हम काफी महफूज़ महसूस कर रहे हैं इसलिए आप लोग उन्हीं के पास वापस ले चलें। तीसरे दिन पुन: पेशेंट को मेरे पास लेकर लोग आए। मैंने उसे आवश्यक दवाएँ देकर अगले दिन पुनः रक्त की जाँच कराकर दिखाने को बोला। अगले दिन हिमोग्लोबिन की मात्रा 4.6 थी। पर पैर पूरा पीछे का भाग काला हो गया था और साथ में तेज बुखार भी था। मैंने इलाज शुरू किया और महिने में एक बार रक्त का परीक्षण। हर महिने क्रमशः खून की मात्रा स्वत: बढ़ने लगी और काला पड़ा पैर स्वत: अपने स्वभाविक रूप में आने लगा।आज रक्त की मात्रा 12.6 है, पैर को गौर से देखने पर सीर्फ धारीनुमा निशान दिखते हैं और पेशेंट अपना नाॅर्मल लाइफ जी रहा है। ये है होमियोपैथी का कमाल! डा.एस.एन. सिंह

होमियोपैथी कैसे विशिष्ट है

होमियोपैथी एक प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति है।
होमियोपैथी कैसे विशिष्ट है(How Homoeopathy is unique)!होमियोपैथी एक प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति है। इस प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति को समझने में भी एक प्रकार के भ्रम की चादर डाली जाती है और समझाया जाता है कि सीर्फ घास फूस से घीस- पीसकर इस्तेमाल औषधियों का मतलब प्राकृतिक चिकित्सा है। सुनने में बुरा भी नहीं लगता। पर जब आप प्राकृतिक चिकित्सा का असली मतलब जानेंगे तब भ्रम फैलानेवाले की असलियत और उनके प्रभाव में आ जानेवालों की बेवकूफी का अंदाजा लग जाएगा। स्वभावतः आपके पास जो मीटर और पारा मिटर होगा आप नाप- तौल उसी से किजिएगा।प्रचलित पैथी, जिसे हनिमैन साहब विपरित चिकित्सा पद्धति (anodyne therepy) कहें हैं वो सीर्फ कारण ढूंढती हैं। जहाँ कारण नहीं मिला, असहाय और जहाँ कारण मिल गया वहाँ अप्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली के कारण नुकसान। चूंकि होमियोपैथी एक अत्याधुनिक चिकित्सा- पद्धति है, अत: यह कारणों के कारण को भी ढूंढ निकालती है। इसका मानना है कि रोग तो मात्र एजेंट है असली फैक्ट्री तो मैन(patient) है। उसका ही समग्र(syco-somatic) , मानसिक एवं शारीरिक लक्षणों का अध्ययन किया जाना चाहिए और फीर हमारे शरीर में विद्यमान जीवनी शक्ति (vital energy) के साथ दोस्ताना संबंध स्थापित करने वाली औषधि देकर विद्यमान वाइटल एनर्जी को सहायता पहूँचानी चाहिए जीससे वो शरीर को पूर्णरूपेण रोगमुक्त बना सके। ऐसा सीर्फ और सीर्फ एक विशिष्ट चिकित्सा पद्धति ही कर सकती है जिसे हम होमियोपैथी के नाम से जानते हैं। डा.एस.एन. सिंह

पीत्त- पथरी(Cholelithisis)

पीत्त-पथरी पित्ताशय में होनेवाली एक दारूण बिमारी है
पीत्त-पथरी पित्ताशय में होनेवाली एक दारूण बिमारी है जो कषटकारी तो है ही पर समय रहते यदि उचित ईलाज नहीं हूआ तो जान लेवा भी हो सकती है। पीत्त की थैली में होनेवाली इस बीमारी के बारे में जानने से पहले थोड़ा सा पीत्ताशय( Gallbladder)के बारे में भी जान लेना आवश्यक है जहाँ यह बिमारी जन्म लेती है। पीत्तायशय लीवर के ठीक नीचे स्थित नास्पाती के अकार की एक थैलीनुमा छोटी सी किंतु बहुत ही आवश्यक ग्रंथि है जिसका मुह ऊपर की तरफ खुलता है। इस थैली में लिवर द्वारा तैयार पीत्तरस(‌Bile duct) संचित होता है जो भोजन पचाने का मुख्य घटक है। अमाशय में भोजन पहूंचने के बाद पाचन की क्रिया शुरू होती है और तब अमाशय में प्राकृतिक रूप से लगे सेंसर के माध्यम से आवश्यक पीत्तरस की मांग की जाती है। पित्ताशय से पीत्तरस ओपनिंग माउथ से निकल कर अमाशय में पहूँचाता है और पाचन क्रिया में मदद पहूँचाता है। पीत की थैली में संचित कोलेस्ट्रॉल - जो पित्ताशय के निचले हिस्से(fundus) में जमा रहता है-के उपरी सतह पर कैल्सियम, फासफोरस एवं अम्ल के संचित हो जाने से स्टोन का निर्माण हो जाता है । यही एलोपैथी की धारणा का आरंभ एवं अंत है। होमियोपैथी इससे आगे बढ़ती है। होमियोपैथी के हिसाब से यह तब तक संभव नहीं जब तक हमारे शरीर की प्रकृति प्रदत कार्यप्रणाली सुचारू रूप से संपादित होती रहे और यह तब तक सुचारू रूप से कार्यरत रहेगी जबतक कोई फंडामेंटल कारण व्यवधान पहूँचा इस प्रणाली को स्वतंत्र रूप से चलानेवाली जीवनी शक्ति को कैद न कर ले। हम यदि उस फंडामेंटल कारण को ढूँढ़ निकालें और उसे ठीक कर दें तब यह बिमारी स्वत: ठीक हो जाएगी और बनी हूई पथरी अपने पूर्व के स्वरूप(form) को ग्रहण कर लेगी। अब तक के अन्वेषणों ने यह सिद्ध कर दिया है कि ऐसी क्षमता सीर्फ होमियोपैथी में है, और मैंने खुद भी गाल स्टोन के कई मरीजों को ठीक किया है। पित्ताशय में जब पथरी बन जाती है तब अचानक पेट में तेज दर्द होता है, मितली एवं उल्टी होती है, भूख नहीं लगती, पेट में गैस फार्म होने लगते हैं, बार बार मुह में छाले निकलते रहते हैं, पेट में दाहिनी तरफ दर्द एवं भारीपन सदैव बना रहता है। बार बार टायफायड बुखार आने लगता है और पिलिया भी हो सकती है। इसकी पहचान एवं पुष्टि के लिए अल्ट्रा सोनोग्राफी की तरफ जाना चाहिए और जैसे ही पत्ता लग जाय कि गाल ब्लाडर में पथरी बन चूकी है, तुरंत किसी एक्सपर्ट होमियोपैथिक चिकित्सक के देख रेख में इलाज करानी चाहिए। वैसे तो होमियोपैथी तब तक सफल नहीं हो पाती जब तक कि रोगी के व्यक्तिगत लक्षणों एवं उसके अंदर सफर कर रहे ट्रेट को न ढूँढ़ लिया जाय। फीर भी कुछ जरूरी औषधियों का जीक्र यहाँ कर देना उचित है। Cardus, Berberies vul, china, calcarea carb, kali bicrom, lycopodium, cholesterinum, calculi belari etc. डा.एस.एन. सिंह

Neonatal jaundice.

जन्म जात पिलिया
जन्म जात अथवा जन्म के कुछ ही समय बाद शिशु को होनेवाली पिलिया को नियोनैटल जौंडिस कहा जाता है।यह भी बिमारी आज कल ज्यादा ही हो रही है और आम लोगों के दोहन भौकाली दिखाकर खूब किया जा रहा है। WHO के आँकड़े के हिसाब से 60℅ मैच्योर एवं 80℅ प्रिमैच्योर बेबी इस बिमारी से संक्रमित पाए जा रहे हैं। यहाँ प्री मैच्योर का मतलब है समय से पहले जन्म लेनेवाले शिशु। मजे कि बात आपको बताते चलें कि प्राकृतिक रूप से जन्म लेने वाले प्रिमैच्योर शिशुओं में इस संक्रमण के आँकड़े सीर्फ 10℅ हैं जबकी अप्राकृतिक (ऑपरेशन) रूप से प्रिमैच्योर जन्म लेने वाले शिशुओं में ये आँकड़े 80℅ हैं। ऐसे शिशुओं में से 90℅ को इलाज की जरूरत ही नहीं पड़ती और 10℅ को इलाज की जरूरत है जीसे एलोपैथी विधा फोटोथेरेपी के माध्यम से इलाज करती है। फोटोथेरेपी एक कमाई का बहुत बड़ा भौकाली जरिया है इसलिए सारे के सारे बच्चों को इस दौर से गुजराया जा रहा है। खैर चलिए इस वितर्क एवं विमर्श (logic and thinking) की तह में चलें कि क्या सचमुच एलोपैथिक कन्सेप्ट के अनुसार neonatal jaundice स्वयं ही ठीक हो जाता है? क्या इस पर विश्वास कर भाग्य के सहारे बैठ जाना चाहिए, क्या फोटो थेरेपी शतप्रतिशत इलाज का सही तरिका है? इसको ठीक से जानने के पहले हमें चिकित्सा विज्ञान के कई आवश्यक कारणों, प्रक्रियाओं एवं तंत्रों के बारे में जानना पड़ेगा। सर्वप्रथम हम ये जानें कि ये बिमारी होती कैसे है? लिवर द्वारा एक बहुत ही आवश्यक पित(bile) का निर्माण किया जाता है जीसे बिलरुबिन(bilrubin) के नाम से जाना जाता है इसका रंग पिला होता है और यह पाचन का मुख्य अवयव है। रक्त में इसकी मात्रा बढ़ जाने से यह बिमारी होती है। इस बिमारी के हो जाने पर आँखें एवं चमड़े पिले दिखने लगते हैं, पेशाब पिला होने लगता है, बुखार बना रहता है, बच्चे की आँखें बूरी तरह चीपक जाती हैं।रक्त परिक्षण करने पर रक्त में बिलरुबिन की मात्रा(1.2) से ज्यादा पाई जाती है।अब सवाल ये उठता है कि आखिर यह बिमारी बच्चे अंदर आती कहाँ से और कैसे है। सिधी सी बात है कि यह अनुवांशिक सफरिंग बिमारी है। इसके कई कारणों में से एक कारण है गर्भ काल में माँ के लिवर पर अतिरिक्त बोझ देकर लिवर को खराब कर देना जिसमें रक्तहीनता दूर करने के नाम पर बेहिसाब अंधाधुंध कैल्सियम ,फालिक एसिड एवं आयरन की गोलियों को खिलाना भी शामिल है। इससे लिवर की कोशिकाओं पर अतिरिक्त भार ढोने की मजबूरी हो जाती है जीससे वह अपना स्वभाविक कार्य नहीं कर पाती और परिणामत: पिलिया होने की संभावना बढ़ जाती है। इसलिए यदि किसी गर्भवती महिला को एनिमिया है तो उसके वास्तविक कारणों को ढूंढ़कर इलाज करना चाहिए और प्राकृतिक खाद्य पदार्थों का सेवन करना चाहिए, क्योंकि प्राकृतिक खाद्य पदार्थों से हमारे लिवर की कोशिकाओं को अतिरिक्त भार वहन नहीं करना पड़ता। एलोपैथी के हिसाब से बिलरुबिन की मात्रा 12 से ऊपर चींतनीय है और उसके नीचे के लेवल को नजरअंदाज किया जा सकता है। पर क्यों, कैसे और कितना विश्वसनीय? चलिए एक और चिकित्सकीय तलाश में गोता लगाएँ। तमामा जैव प्राणी के पास एक प्रकृति प्रदत प्रणाली होती है जुसे इम्युन सिस्टम के नाम से जाना जाता है। यह दो प्रकार का होता है। ऐक्टिव इम्युन एवं पैसिव इम्युन। ऐक्टिव इम्युन जीसे स्वयं बडी तैयार करता है और इसे एंटिबडी के नाम से जानते हैं तथा पैसिव इम्युन जो वाह्य मेहमान(foreign host) होता है जीसे एंटिजन के नाम से जाना जाता है। दरअसल यही एंटिजन एंटिबडी को तैयार होने और लड़ने के लिए उकसाता है। यदि यह नहीं उकसाए तो हमारा एंटिबडी चुपचाप सोया का सोया रहेगा। एलौपैथी के हिसाब से ये सारी प्रक्रिया जन्म के बाद शुरू होती है और एलोपैथिक चिकित्सक इसी उम्मीद पर 12 से नीचे बिलरुबिन रहने पर छोड़ देते हैं कि बेबी का एंटिबडी सक्रिय हो जाने पर वह स्वत:ठीक हो जाएगा। यह सीर्फ अनुमान है और वैज्ञानिक वितर्क से परे और इसीलिए जोखिमपूर्ण भी। कई बार अनुवंशिक दोष के कारण आनुपातिक एंटिबडी तैयार नहीं होता और बिमारी बहुत जल्दी संघातिक हो जाती है। अब चलते हैं होमियोपैथिक फिलाॅसफी की ओर। चूंकि हनिमैन साहब ढाई सौ साल पहले ही अनुसंधान कर दुनिया के सामने पेश कर चूके हैं कि हमारी जीवनी शक्ति (vital energy) ही पूरे शरीर तंत्र का संचालन करती है जिसका असली मालिक न्युरो होता है और एक्सिडेंट को छोड़कर सारी बिमारियाँ अनुवंशिक रूप से सफर करती आ रही होती हैं और हर पीढ़ी में परमोट भी करती हैं। यानि बिमारी का होना हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली (इम्युन सिस्टम) का कमजोर होना है और उसे ढूँढ़कर उसका इलाज करना चिकित्सकीय धर्म। चिकित्सक का धर्म अवहेलना अथवा लोगों को धोखा में रखना नहीं और नहीं झूठी दलिलें पेश करना है। होमियोपैथी के हिसाब से यदि माँ अथवा पिता के जीन में सोरा, सिफलिस, एवं साइकोसि में से तीनों ट्रेट मौजूद हो अथवा सीर्फ सोरा ही हो तो बच्चे को जाॅंडिस होने की संभावना बनी रहती है। सोरा की पहचान है शरीर पर खुजली का होना। चूंकि जब नवजात बेबी की प्रतिरक्षाप्रणाली कमजोर है तभी जॉंडिस संभव है तो यह कयास लगाना कि जन्म के बाद सक्रिय होने वाली प्रतिरक्षा प्रणाली उसे ठीक ही कर डालेगी स्वयं एवं बेबी के पैरेंट्स को धोखे में रखना है। इसलिए उसका समुचित इलाज होना चाहिए और इसके लिए एक मात्र होमियोपैथी चिकित्सा प्रणाली ही कारगर है। इसके लिए किसी एक्सपर्ट होमियोपैथिक चिकित्सक से संपर्क करना चाहिए। होमियोपैथी में इसकी कुछ प्रचलित औषधियाँ हैं जिनका जीक्र मैं कर दे रहा हूं। Chellidonium, china, kalmeg, cardus, nux vom, sulpher, phosphourus, lupulus hamulus etc. डा.एस.एन. सिंह

माइग्रेन (Migraine)

माइग्रेन (Migraine)
चूकि होमियोपैथी एक ऐसी पैथी है जो बिमारियों को जड़- मूल से समाप्त कर देती है, यह एक ऐसी चिकित्सा पद्धति है जो रोग के सीर्फ नाम से ही वास्ता नहीं रखती, यह वास्ता रखती है उस रोगी से जीसे रोग ने अपनी शरण- स्थली बना रखा है।इसलिए रोगी के विशिष्ट लक्षण एवं रोग के विशिष्ट लक्षणों का बड़े ही कौशलपूर्ण ढंग से आकलन एवं व्यकलन कर होमियोपैथिक मैटेरिया मेडिका से औषधि का चूनाव कर रोगी को अरोग्य किया जा सकता है। ऐसी स्थिति में रोग एक होते हूए भी औषधि एक नहीं हो सकती। बहरहाल हम माइग्रेन के बारे में जानने एवं समझने का प्रयास करते हैं और अपने अनुभव एवं अनुभूत प्रयोगों से हुई सफलता से उत्साहित होकर इसके विभिन्न पहलूओं को प्रस्तुत करने का प्रयास करते हैं। माइग्रेन के सैकड़ों रोगियों को ठीक कर होमियोपैथी का झंडा बूलंद कर आगे बढ़ते हैं। प्रचलित चिकित्सा पद्धति के अनुसार माइग्रेन तंत्रिका तंत्र के पार्श्विक भाग(parietal lob) में आए रसायनिक बदलाव अथवा असंतुलन(neurological disorder) के कारण होता है।चूकि इस भाग में एक रसायन होता है जीसे सेरेटोन ( seretone) नाम से जाना जाता है, जो निंद,मनोदशा, भूख एवं पाचन को नियंत्रित एवं संचालित करता है। यह रसायन पार्शविक लोब के अलावे, आँत, एवं ब्लड प्लेटलेट में भी पाया जाता है। यही कारण है कि माइग्रेन के रोगी का, पाचन, निंद एवं मूड सबकुछ गड़बड़ रहता है। हालांकि यह विज्ञान इस रसायन के असुंतलन का ठीक ठीक कारण आज तक नहीं ढूंढ पाया है और कारण अधारित उपचार करने की विवसता के कारण, इलाज भी नहीं ढूंढ पाया है। इसके विपरीत चूकि मैं पहले ही बता चूका हूं होमियोपैथी का प्रयोजन न तो रोग से है और नहीं कारण से, अपितु इसका प्रयोजन रोगी से होता है और उसके लक्षणों से होता है । चूकि रोगी समष्टि होता है और लक्षण रोगी के जीवनी शक्ति की भाषा।जो उपचार हेतु सबसे सबसे विश्वसनीय तरीका है, और यही कारण है कि होमियोपैथी शतप्रतिशत माइग्रेन का सफल इलाज कर देती है। पूर्ण इलाज रोगी के कौंसलिंग के बाद ही संभव है। फीर भी कुछ औषधियाँ हैं जिनसे दर्द में राहत पहूँचा या जा सकता है। Belladona, spigelia, sanguniarea, arsenic, lac deflore, caelsponea b- Q इत्यादि।

potentisation Or dynamization

What is potentisation Or dynamization in Homoeopathic views.
Dynamization Or potentisatio is process,is a new technique in medical scince by which the latent natural substincial properties gain high medicinal power by dilution step by step. It technique is fully Homoeopathy and it founded by Dr. Hahnemann. डाइनेमिजेशन अथवा पोटेंटाइजेशन एक ऐसी तकनिकि है, एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा पदार्थ के अवय प्राकृतिक रूप से सुसुप्तावस्था से जाग्रतावस्था में आते हैं और अपन सर्वोच्च औषधीय गुण को प्राप्त करते हैं, ठीक वैसे ही जैसे प्राकृतिक रूप से प्राप्त शरीर को योगा एवं व्ययाम के माध्यम से सबल, सुडौल एवं ऊर्जावान बनाया जाता है। ढाई सौ साल पहले भी हमारे श्रद्धेय की सोंच कितनी वैज्ञानिक थी कि पदार्थ अपने मूल रूप में न सीर्फ गुण- दोष से युक्त होते हैं अपितु ऊर्जा से भी रहीत होता है। आइंस्टाइन का भौतिकि का सिद्धांत कहता है कि यदि कोई भी पदार्थ है तो उसमें भार(mass) है और यदि उसमें भार है तो उसमें उर्जा भी निहित है जो उसे तोड़ने से निकलती है। पदार्थ को तोड़ते तोड़ते अस्तित्व हीन बनाया जा सकता है परंतु उससे निकली ऊर्जा का न तो क्षय होता है और नहीं वो विनिष्ट होती है। उसे किसी माध्यम में संग्रहित किया जा सकता है। बस!इसी सिद्धांत को हनिमैन साहब ने चिकित्सा के क्षेत्र में अजमाया और परिणाम न सीर्फअनुकूल प्राप्त हूए बल्कि आश्चर्यजनक मिले। औषधीय पदार्थ को अल्कोहल जैसे अक्रिय माध्यम में बार - बार तनुकृत(dilute)कर पोटेंटाइज किए। परिणाम में देखा गया कि पदार्थ जैसे जैसे अपने अस्तित्व को खोता गया प्रभाव के क्षेत्र में प्रभावी होता गया क्योंकि इस क्रम में एक अदृश्य क्रिया भी होती रही और वह यह कि ऊर्जा में परिवर्तन एवं अक्रिय माध्यम अल्कोहल में संरक्षण। इसे ही हनिमैनियन पोटेंटाइजेशन अथवा डाइनेमिजेशन कहा जाता है। इस विधि से पदार्थ अपने सर्वोच औषधीय गुण को उर्जा के रूप में ग्रहण कर लेते हैं और उन्हें अल्कोहल में लंबे काल तक सुरक्षित एवं संरक्षित रखा जा सकता है। इनका प्रभाव मूल प्रभाव से ज्यादा होता है और चूंकि शरीर का संचालन एक ऊर्जा (vital energy) द्वारा ही होता अत: यह बड़ी सहजता से जरूरत पड़ने पर vital energy के साथ echo- friendly संबंध भी बना लेती हैं।

Hahnemannean views.

हनिमैन के अनुसार बिमारियों के कारण।
गौरतलब है कि होमियोपैथी के विरोधी यह दुष्प्रचार करते हैं कि होमियोपैथी तो कारण ढूंढ़ती नहीं, वो तो सीर्फ लक्षण ढूँढ़ती है, इसलिए उस पैथी में सटीक इलाज नहीं हो सकता, इसे और हवा देने में आधे अधूरे ज्ञान वाले होमियोपैथिकों की भी कम भूमिका नहीं है। पहली तो बात यह कि हनिमैन साहब ने ये कहीं नहीं कहा है कि एक चिकित्सक को कारण जानने की कोई जरूरत नहीं। कारण जानने ही के लिए तो उन्होंने ऑर्गेन (‌Organon) के फार्मूला पाँच(Apherism 5) की रचना की जिसमें सटीक कारण, कारण पहचानने का तरिका और इलाज करने के लिए आवश्यक विंदूओं पर पर प्रकाश डाले हैं। उन्होंने बड़ी जो देकर कहा है कि " Homoeopathy gives accuracy, certainity, and diffinity.हनिमैन साहब के अनुसार कारण पर लक्षण(Symptom) की वरियता होनी चाहिए, क्योंकि कारण में, यदि किसी कारण सटिकता एवं पूर्णता(aquaracy and perfection) नहीं रहा तो इलाज गलत हो जाने की असीम संभवनाएं संभव हैं। चूंकि लक्षण स्वयं रोगी का दिया हूआ बयां है, जीवनी शक्ति की पूकार एवं अभिव्यक्ति है अत: उसकी सटिकता एवं पूर्णता(aquaracy and perfection) प्रमाणिक होगी, फलतः इलाज भी सटीक एवं पूर्ण होगा। हनिमैनियन दृष्टिकोण से बिमारियाँ दो तरह की होती हैं। नूतन एवं जीर्ण(Acute and chronic) । नूतन बिमारियों के उत्प्रेरक कारण,नवीन अथवा आकस्मिक होते हैं जिसमें खान- पान से लेकर वातावरण, मौसम, विषाक्त हवा अथवा पानी विषाक्त जानवरों के दंश वगैरह वगैरह हैं। इन्हें अच्छी तरह जान और समझ कर बड़ी सहजता से मटेरिया मेडिका से उसके सदृश्य दवा देकर ठीक किया जा सकता है। जीर्ण रोग(‌ Chronic disease) , जीर्ण रोग का कारण Fundamental होता है जो मनुष्य के अंदर पिढ़ी दर पीढ़ी आनुवंशिक रूप में सफर करते आ रहा होता है और वह अद्श्य होता है और हमारी अदृश्य जीवनी शक्ति (vital energy) के साथ शीत युद्ध करते रहता है और उसे परास्त करने की कोशिश में लगा रहता है। इसे ही हनिमैन साहब मियाज्म (Miasm) कहे हैं जीसे स्वीकारने में एलोपैथी के लोग शर्माते हैं और इसके बदले में ट्रेक(trait) शब्द का इस्तेमाल करते हैं। इसे पहचानने के लिए हनिमैनियन तरिका है, रोगी का इतिहास, उसकी शारीरिक बनावट, शक्ति, रोगी का स्वभाव, उसका चरित्र, उसका पेशा, रहन- सहन, उसकी आदतें, समाजिक एवं घरेलू संबंध,उम्र, कमांगो के विषय में जानकारी, उसकी अभिरूचियाँ एवं सक्सेबिलिटि, आदि की सही एवं सटीक पड़ताल। हमें उम्मीद है कि इस आलेख से होमियोपैथी पर फैलाए गए भ्रम बे- पर्द होंगे और होमियोपैथी का व्यापक प्रयोग एवं उपयोग बड़ी तीव्रता से होना संभव होने लगेगा।

बिमारियों का उद्गम

Origin of diseases
चूकि मैं पहले बता चूका हूँ कि होमियोपैथी एक ऐसी नुतन चिकित्सा विधा है जीसमें गणित का अकल एवं व्यक्त(differentiation and intigration), भौतिकी का नाभिकीय ऊर्जा का विखंडन(diffusion law of neucleaus) , रसायन विज्ञान का तनुकरण सिद्धांत (law of diffusion) एवं बायलोजी का जीवाश्म सिद्धांत (law of organism) समाहित है। चिकित्सा विज्ञान में चले आ रहे अब तक के बैक्टेरियोलाॅजिकल सिद्धांत को पूराना एवं दिशाहीन साबित कर बिमारियों के एक नए कारण के सिद्धांत की खोज कर हनिमैन साहब ने दुनिया के सामने रख दिया जीसे मियाज्म(miasm) के नाम से जाना जाता है। हनिमैननियन दृष्टि से पैथोलॉजिकल सर्वेक्षण से प्राप्त बिमारियों की मौजदगी को उद्गम मानना दरअसल चिकीत्सकीय चूक है जीसके चलते बिमारी जड़ मूल से समाप्त नहीं हो पाती।वर्षों की कठीन तपस्या के बाद हमारे श्रद्धेय ने यह निष्कर्ष निकाला कि बिमारियों की जड़ मौलिक रूप से छुपा रहता है और वह अदृश्य भी होता है जीसे किसी भी आधुनिक यंत्र से पकड़ना संभव नहीं सिवाय मनुष्य के अपने विकसित अनुभव के। वही मौलिक कारण है, 'मियाज्म'! मियाज्म(miasm#taint#difilmen# contiminant)मुलत: एक ग्रीक शब्द है जीसका अर्थ मलिनता,कलंक विषाक्तता, दुषित करनेवाला पदार्थ अथवा जीव।हनिमैन साहब इसके तीन स्वरूपों का वर्णन किए हैं। सोरा(psora), सिफलिस (sycosis) एवं सायकोसिस(sycosis) । आधुनिक अन्वेषकों ने एक और मियाज्म को जोड़ा है जीसे ट्युबरक्युलिक(Tuberlulic) मियाज्म कहते हैं। ये चार फंडामेंटल कारण हैं जो एक साथ अथवा अलग - अलग व्यक्ति के अंदर छिपे रहते हैं और सारी बिमारियों की मेजबानी करते रहते हैं। ये इतने शातिर होते हैं कि एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में अग्रसरित होते रहते हैं, स्वयं को परमोट करते रहते हैं, स्वयं तो अदृश्य रहते हैं पर तरह तरह की बिमारियाँ तैयार करते रहते हैं। ये इतने सुक्ष्म होते हैं की आकार एवं आकृति(face and figure) के रूप में नहीं दिखते और हमारी जीवनी शक्ति ( vital energy) के साथ शितयुद्ध करते रहते हैं। इनको पहचाने बगैर किसी भी बिमारी का समूल नाश नहीं किया जा सकता। मजे की बात है कि सोरा जीसकी पहचान खुजली के रूप में होती है सबसे पहले प्रवेश करता है और सारे मियाज्मों की मेहमानी करता है, अथवा यूँ कहें कि सारे मियाज्मों के लिए मिट्टी तैयार करता है जिसमें बिमारियों के बीज बोए जाते हैं। यह बहुत ही चापाल होता है और एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में फैलते रहता है। पर इसके अस्तित्व में आने की खोज है भी बड़ी दिलचस्प है जीस पर हनिमैन साहब के अलावे किसी ने ध्यान ही नहीं दिया और न हीं इसको गंभीरता से आज भी कोई ध्यान देता है। हनिमैन साहब के हिसाब से सबसे पहले दिमाग में खुजली (mental itching) मचती है और तब शरीर पर लक्षित होती है। इसका जन्म, घृणा, ईर्ष्या, घुटन, प्रतिशोध इत्यादि प्रवृतियों से होता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि बिमारियों का प्रथम मेहमान , बीमारियों का पितामह, सोरा(psora)कैसे हमारी पिढ़ियों से हमारा पीछा करते आ रहा है। मियाज्म की समान्य पहचान- सोरा (psora) मानसिक व्यग्रता एवं चमड़े पर दृश्य अथवा अदृश्य खुजली। सिफलिस (syphlis) खोया खोया, शरीर पर मांस की कमी अथवा बहू लता, चेहरा पिलपिला,बिना खुजली वाले दाने। सायकोसिस(sycosis) लापरवाह, शरीर पर तील अथवा मस्सों का उगना।

डा.एस. एन. सिंह

ITP- immun thrombocypenic purepura or immun thrombocypenea.

ITP- immun thrombocypenic purepura or immun thrombocypenea.
आइ टी पी, शरीर की वह विकृत अवस्था है जिसके कारण रक्त में प्लेटलेट कणों का संतुलन गड़बड़ा जाता है। मूलत:यह अटोइम्युन डिसऑर्डर की समस्या है। यह दो तरह का होता है। पहला, प्राइमरी डिसऑर्डर, इसके तहत बोनमैरो में प्लेटलेट के निर्माण में कमी आ जाती है और रक्त में प्लेटलेट की संख्या कम हो जाती है। दूसरा, सेकेंडरी डिसऑर्डर, इसके तहत। T cell killer cell को मेमरी नहीं दे पाती, फलत: किलर सेल अपने ही स्वस्थ्य प्लेटलेट सेलों को मारने लगती है। रक्त में प्लेटलेट की मात्रा कम होने लगती है। चूकि यह एक अटोइम्युन डिसऑर्डर की बिमारी है इसलिए इसमें प्लेटलेट का अध्यारोपण अथवा प्लेटलेट बढ़ाने वाली चीजों का सेवन आशातीत परिणाम नहीं दे सकता। चूंकि रक्त में थक्का बनने में प्लेटलेट का अहम रोल होता इसलिए आइ टी पी के मरीज को सधारण स्थलों से भी रक्तस्राव होने लगते हैं और जल्द रूकते नहीं। मसूड़ों एवं नाक से खून निकलना आइ टी पी का कारण हो सकता है। लझण: भारी थकान, मितली, धीमा बुखार, जाँघ की मांसपेशियों में कमजोरी, टटैनी,एवं जलन होना। नाक अथवा मसूड़ों से सहज ही रक्तस्राव होने लगना, डायरिया का सा लक्षण बार बार होना। लीवर अथवा स्पीलन का बढ़ जाना। इसकी पुष्टि हेतु,। CBC, bone marrow test कराना होता है साथ ही साथ USG भी कराना चाहिए जीससे लीवर एवं स्प्लीन के बारे में पता चल जाय! जब रक्त में platlate की मात्रा एक लाख से नीचे आने लगे तब इसकी संभावना बनने लगती है। कारण: एलोपैथी के हिसाब से इसका सटिक कारण आज तक पता नहीं चल पाया है इसीलिए इसे आइडियोपैथिक डिजीज कहा जाता है। होमियोपैथी के हिसाब से यह मिक्स मियाज्म यनि सोरा, सिफिलिस एवं सायकोसिस तीनों की मौजूदगी के कारण होता है। इसलिए इसका इलाज एक कुशल चिकित्सक ही कर सकता है। इलाज: होमियोपैथी में किसी बिमारी की कोई मान्य दवा नहीं है क्योंकि यह पैथी व्यक्ति के व्यक्तिगत कैरेक्टर के हिसाब से दवा के चुनाव का महत्व देती है। तो भी इसकी दो महत्वपूर्ण दवाएं मानी जाती हैं । Bothrops l -30 Erechthites -Q
डा.एस. एन. सिंह

दंशज चुनौती और होमियोपैथी!

Biteing Challange and Homoeopathy.
तमाम वाह्य एवं आंतरिक दुर्घटनाओं की तरह जहरीले प्राणियों का दंश भी एक दुर्घटना की तरह ही होती है और हर दुर्घटना में सफलता की निर्भरता इस बात पर टीकी होती है कि आप कितनी जल्दी सही और समुचित उपचार शुरु कर लेते हैं। दंश छोटे कीट पतंगों से लेकर बड़े जानवरों तक करते हैं और उनके जहर पीड़ादायक से लेकर जानलेवा तक हो सकते हैं। कुछ के विष कुछ मिनटों से लेकर कुछ घंटो में ही जान ले सकते हैं तो कुछ के विष कुछ महिनों से लेकर कुछ वर्षों में जान लेते हैं, वहीं कुछ के विष सीर्फ कष्ट उत्पन्न कर सकते हैं तो कुछ के विष लंबे समय तक विकृति पैदा कर भिन्न भिन्न बिमारियाँ पैदा करते रहते हैं।इन सभी चुनौतियों पर विस्तृत चर्चा करेंगे। सबसे पहले हम छोटे किट पतंगों की बाइटिंग के बारे में जानते हैं। छोटे किट पतंगों में, हड्डा, बिर्हनी, मधुमक्खी अन्य मौसमीं जहरिले पतंगें एवं बिच्छू तक आते हैं। इनके बाइट करने पर 99℅ पेशेंट Ledumpal-30, से ठीक हो जाते हैं। बिच्छू के डंक मारने पर दो बूँद दवा आधे- आधे घंटे पर अराम होने तक, अराम हो जाने पर तीन घंटे पर, बाकी के डंक मारने पर तीन- तीन घंटे पर दो बूँद दवा इस्तेमाल माल करनी चाहिए। कुत्ते, बंदर, बिल्ली, सियार, नेवला इत्यादि। चूंकि इन सभी जंतुओं के लार में लायसिन नामक तत्व होता है। यह मूलत: एमिनो एसिड का एक घटक होता है। जब ऊपर वर्णित प्रजाति के जानवर काटते हैं तब यह उनके द्वारा गड़ाए गए दाँत के छिद्र तक पहुँच जाते हैं और यह वहाँ लंबे दिनों तक पड़े पड़े हाइबोफोबिनम अथवा हाइड्रोफोबिनम नामक बिमारी पैदा करते हैं जिससे प्रभावित व्यक्ति की मृत्यु लगभग हो ही जाती है। मैंने अपने अब तक के प्रैक्टिस हइबोफोबिनम एक पेशेंट ठीक किए हैं। बाइटिंग के दर्जनों केस का इलाज किए हैं। ऐसे जंतुओं के दंशन के बाद , Lyssion Or hybophobinum-1 m, एक खुराक दवा सात दिन पर चार खुराक ले लें। साथ ही साथ घाव सुखाने के लिए ledum pal-30, Sillicea-200 एक दिन बीच लगाकर एक बार, घाव सुखाने तक ले लें। बाकी की संभानाओं को निरस्त करने के लिए Echinacea A -Q, पांच बूँद दवा आधा कप पानी के साथ तीन बार एक महीने तक सेवन कर लें। सर्प दंश (snake bite) असली चुनौती यही है और इसमें होमियोपैथी आज तक व्यापक रूप से या तो आजमाई नहीं गई अथवा सही डाटा नहीं तैयार किए गए। विडंबना कि सर्पदंश की प्रतिशेधक दवा- Golendrina euphorbia, बजार में असानी से नहीं मिलती और नहीं इसके प्रयोग के आँकड़े मौजूद हैं। प्रसंगवश मैं बताते चलूँ, कि Euphorbia group की कई औषधियाँ सर्प दंश में कामयाब हो सकती हैं जिन्हें अजमाया जाना चाहिए। फिलहाल हमें अपने घरों में तीन दवाएँ रखनी चाहिए। Naja t-30, करैत के डंक मारने पर इस दवा को प्रत्येक 15 मिनट पर दो बूँद दोहराना चाहिए। Vipera-30 , कोब्रा(गेंहूअन), के डंक मारने पर दो बूंद प्रत्येक 15 मिनट पर दोहराना चाहिए। इसके अलावे Euphorbia prostate-Q, और ये दवा नहीं मिलने पर Leucus asp-Q, पाँच बूँद दवा आधा कप पानी के साथ पहली दवा के साथ क्रमवार आधे- आधे घंटे पर दोहराना चाहिए।
डा.एस. एन. सिंह

Three axisis of Homoeopathy

होमियोपैथी के तीन अक्ष
जब हम अनुसंधानों एवं परिणामों के संग्रह की तरफ बढ़ते हैं तब पाते हैं कि होमियोपैथी एक पूर्ण साइंस है। कैसे और क्यों न अब तक इसमें आशातित एवं औसतन अनुसंधान किए और प्रस्तुत किए गए, समझ से परे है। परिणाम यह है कि आज चिकित्सा न तो आर्थिक रूप से और नहीं समाजिक रूप से सुग्राह्य और संतोषजनक है। वैज्ञानिक लॉजिक भी शोर- शराबा और चकाचौंध में नदारत कर दिया गया है।इन तीनों संकट से उबरने का रास्ता होमियोपैथी तैयार करती है। क्योंकि रोग से रोग निवारण तक के वैज्ञानिक परिणाम और लाॅजिक का इसका कोई शानी नहीं। हनिमैन साहब की खोजी गई इस पैथी के तीन अक्ष हैं (1)Simillia, Similibus, Curentue (2)Psora, Syphilis, Sycosis (3)Rapidly, Gently and permanently. अब हम इनकी एक- एक व्याख्या करेंगे। (1) ‌Simillia, Similibus, Curentur यह चिकित्सा विज्ञान का एक नया एवं नायाब खोज है।हनिमैन साहब काफी शोध एवं अनुभूत प्रयोग के बाद इस निष्कर्ष पर पहूँचे थे कि प्रकृति ने जो चीजें हमें तोहफे में दी हैं उनका सूक्ष्म अध्ययन एवं बेहत्तर उपयोग विज्ञान एवं कला है। प्रकृति प्रदत पदार्थों का उपयोग चिकित्सा के क्षेत्र में आदि काल से भिन्न भिन्न प्रकारों से किये तो जरूर जाते रहे हैं पर उनकी वैज्ञानिकता एवं व्यापकता की तरफ दुनिया का ध्यान तब आकृष्ट हूआ जब हनिमैन साहब ने यह सिद्ध किया कि, प्रत्येक पदार्थ स्थाई अथवा अस्थायी, तत्क्ष्ण अथवा मद्धम गति से मनुष्य के ऊपर प्रभाव डालते हैं और स्वभाविक प्रक्रिया में बदलाव लाते हैं। यह लगभग सभी जैव पदार्थ(‌ organic eliments) पर लागू भी होता है। होमियोपैथी का सीधा फंडा यही है कि पदार्थ द्वारा स्वस्थ शरीर पर मूल रूप में लाए गए शारीरिक एवं मानसिक परिवर्तन‌, अस्वस्थता की स्थिति में लाए गए उसी प्रकार के परिवर्तनों की दवा है। यनि विष ही विष की दवा है। इसी सिद्धांत को होमियोपैथी चिकित्सा विधा में simillia, similibus, curenture के नाम से जाना जाता है। यह त्रिक होमियोपैथी के लिए औषधि के निर्माण,प्रयोग एवं उपयोग की दिशा और दशा का निर्धारण करता है। (2) Psora, Syphilis, Sycosis बिमारियों के कारणों की तलाश एवं अनुसंधान के बारे में हनिमैन साहब का शोध यह कहता है कि बिमारियों का कारण फंडामेंटल ट्रेट है जो विभिन्न परिस्थितियों एवं वातावरणों में शरीर की स्वभाविक प्रक्रिया को बाधित कर उसमें बदलाव लाता रहता है। उन्होंने ऑर्गेनन के पाँचवे सूत्र में बताया है कि जीस प्रकार नई बिमारियों के उत्तेजक कारण इनवरमेंटल एंड सब्सटेंशियल( वातावरण संबधी एवं वस्तुगत) होते हैं जो दृश्य(visualised) होते हैं वैसे ही पुरानी बिमारियों के उत्तेजक कारण फंडामेंटल एंड वर्चुअल होते हैं जो अदृश्य (unvisualised) होते हैं जिन्हें मियाज्म कहते हैं। ये मूलतः तीन हैं। पहला है सोरा(psora) । यही सारी बिमारियों का मेहमाननवाजी करता है, इसकी पहचान मानसिक बेचैनी। यह मानसिक रूप से गलत करने को उकसाता रहता है।जैसे ही इसका प्रभाव मानस पटल पर पड़ने लगता है,वैसे ही इसका प्रभाव अंगों पर दिखने लगते हैं और सर्वप्रथम यह प्रभाव चमड़े पर खुजली के रूप में प्रकट होता है। सिफलिस (‌syphilis) ,यह दूसरे प्रकर का फंडामेंटल कारण है।हालांकि इसकी आगवानी सोरा के मेहमानावाजी से ही होता है तोभी इसका अपना अलग ही प्रभाव,चिन्ह एवं लक्षण होता है। इसकी पहचान है, शरीर के उपर विभिन्न भागों पर बिना खुजली के ताने, चमड़े का अस्वभाविक रंग, शरीर पर मांस की कमी , चेहरा धंसा हूआ एवं पिलपिला दिखना, हिमोग्लोबिन की कमी।प्राय: बिमारियों रात में बढ़ जाना। दरअसल इसकी मौजूदगी अंगों की स्वभाविक रचनाओं को बिगाड़ते है और परिणामतः अंग विध्वंसक स्थितियां शुरू होने लगती हैं। इसका रोगी निशक्त, निसहिय एवं चेहरे से एनेमिक तथा मन से थका मंदा दिखता है। (3)सायकोसिस -(Sycosis) - इसका रोगी खोया खोया, शंकालु, विध्वंसक, किसी भी विषय में ठोस निर्णय लेने में अक्षम होता है तथा चमडों पर विशेष विकृतियाँ दिखती हैं जैसे तील, मस्से, गुमड़ इत्यादि। कैंसर जैसी संघातिक बिमारियं इसी मियाज्म की मौजुदगी के कारण होती हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि होमियोपैथी के इस अक्ष में बिमारियों की असली और सबसे तार्किक कारण , परत दर परत उनकी संरचना एवं स्वरूप का सबसे सुनिश्चित और विस्शनीय पहचान एवं उद्भभेदन है जीसे सोरा, सिफलिस एवं सायकोसिस के नाम से जाना जाता है दरअसल इसे ही मियाज्म (ट्रेट) कहते हैं जो आनुवंशिक रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी सफर करते आ रहा होता है और हमारी जीवनी शक्ति को कमजोर करते आ रहा होता है।तमाम बिमारियों को निमंत्रित, नियंत्रित एवं सुरक्षित रखने की कोशिश करता रज्ञता है। साफ शब्दों में कहें तो बिमारी की जड़ मूल यही होता है और बिमारी दूर कर देने के बाद भी यदि यह बचा रह गया तो रूप बदल फीर प्रकट हो जाता है। (3) Rapidly, Gently and permanently. हनिमैन साहब का मानन है कि चिकित्सा एक कला है और यह जिरहबख्त में लपेटे भारी भरकम सेना अथवा सीपाही की भांति बोझिल एवं कष्टकार नहीं होनी चाहिए। यह सुगम, सरल और मृदु होनी चाहिए, साथ ही साथ शिघ्रता से और सदा सदा के लिए अरोग्यकारी होनी चाहिए। आर्गेन के दूसरे सूत्र में इसको कलम बद्ध करते हूए हनिमैन साहब लिखते हैं कि ऐसा करने में वही चिकित्सक सफल हो सकता है जीसे बिमारियों का समुचित ज्ञान हो, उनके सभी कारकों एवं कारणों की पूर्ण जानकारी हो जो पुर्वाग्रह से वंचित हो और निरपेक्ष आचरण एवं हिम्मत रखता हो और उसे औषधियों का पूर्ण ज्ञान हो। इस प्रकार हम देखते हैं कि तीन अक्षों पर टीकी यह पैथी अरोग्यकारिता के क्षेत्र में फीर त्रिआयामी परिणाम देती है। शुद्धता, निश्चितता एवं निर्णायकता, Homoeopathy gives three dimensional result,Aquaracy, certainity and difinity.
डा.एस. एन. सिंह